कहीं खामोश रातें हैं
तो कहीं तन्हा ज़िन्दगी
कहीं साँसों में दबी
शिशकियों की आवाज़ है
किसी के अपनत्व की तलाश में
भटकता बावँरा ये मन
कुछ कहने की आस में
सहमते हुए दो लब...
आज कोई तो खलल है
इस मंज़र में
शायद दिल का गुबार
फटने को है !!
तो कहीं तन्हा ज़िन्दगी
कहीं साँसों में दबी
शिशकियों की आवाज़ है
किसी के अपनत्व की तलाश में
भटकता बावँरा ये मन
कुछ कहने की आस में
सहमते हुए दो लब...
आज कोई तो खलल है
इस मंज़र में
शायद दिल का गुबार
फटने को है !!
To fat jaane do is gubaar ko...
ReplyDeleteसुन्दर शब्द रचना
ReplyDeleteआपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि- आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा आज शुक्रवार (02-12-2016) के चर्चा मंच "
ReplyDeleteसुखद भविष्य की प्रतीक्षा में दुःखद वर्तमान (चर्चा अंक-2544)
" (चर्चा अंक-2542) पर भी होगी!
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत खूब..
ReplyDelete