Saturday, January 22, 2011

कहानी उन परिंदों की...

हमें न जाने कहाँ से परिंदों से प्यार हो गया
सुबह बाज़ार जाकर हम कुछ परिंदे ले आये
कैद कर के रखा था हमने उन्हें कि
कहीं हमें छोड़ कर शायद वो उड़ न जाएँ
हर सुबह मैं उन्हें दाना खिलाती
उनके साथ मैं घंटों बिताती
वो फड़्फड़ाते थे उस बंद पिंजड़े में
शायद उड़ना चाहते थे खुले असमान में
पर मैं कभी उनका दर्द न समझ पायी
एक रोज़ अहसास हुआ कि क्यों कैद कर रखा है
हमने इन्हें इस पिंजरे में
आखिर क्या गुनाह है इनका...
शाम का वक्त था जब बैठी थी मैं उनके साथ
फिर मन में ख्याल आया और मैंने निश्चय किया
सुबह उठकर उन्हें आज़ाद कर दूंगी
उड़ा दूंगी इस खुले आसमान में
सुबह उठकर कर दिया उन्हें आज़ाद हमने
दर्द तो बहुत हुआ ....
क्योंकि बहुत प्यारे थे हमें वो
उन्हें आजाद करने के बाद बहुत रोयी मैं
शाम ढलते ही मुझे उनका ख्याल सताने लगा
इसी ख्याल के साथ जा पहुंची मैं छत पर
वहां जाकर देखा तो दंग रह गई
वहां का नज़ारा देखकर
सारे परिंदे वापस आ चुके थे
पर ये देखकर मैं कुछ समझ न पाई
कि उन्हें मुझसे लगाव हुआ था या फिर उस बसेरे से॥

8 comments:

  1. bahut khoob pratbha ji...

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  2. जीवन के कृष्ण पक्ष से शुक्ल पक्ष की ओर ,अन्धकार से प्रकाश की ओर .......विचार और भाव की सशक्त रूपकात्मक अभिव्यक्ति हुई है इस रचना में .बेहद सशक्त रचना पढ़ी है एक अरसे बाद

    आपकी आने वाली ताज़ा टिपण्णी के लिए आभार .

    जैसे उड़ी जहाज को पंछी ,उड़ी जहाज पे आवे

    जाएं तो जाएं कहाँ ?कुछ ज़िन्दगी का अक्स भी तो यूं ही है ?

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  3. प्रजा तंत्र में वोटर की भी यही नियति है उन हराम खोरों को दे आतें हम अपना मत जो हर पांच साल बाद आके छूते हैं हमारे पाँव ,फिर डालते रहतें हैं वायदों का चुग्गा बंद पिंजड़ों में

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  4. मैं कुछ समझ न पाई
    कि उन्हें मुझसे लगाव हुआ था या फिर उस बसेरे से॥

    बहुत सुंदर भाव ...

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  5. कल 17/अगस्त/2014 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
    धन्यवाद !

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  6. बहुत खूबसूरत भाव

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  7. अब वे परिंदे न रहे वे निवासी हो गए हैं , खूबसूरत रचना

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