न जाने कहाँ से आ गए
दरमियाँ हमारे फ़ासले।
न दिल की सुनी तुमने कभी
न जुबाँ से कहा हमने कभी।
बस अपने अहम की आग
में जलते रहे तुम ।
न हमने कभी कोशिश की
बुझाने की ।
अब फासले इस कदर
बढ़ चुके हैं दरमियाँ हमारे ।
सोंचती हूँ क्यों न
हम अपनी राह ही बदल लें।।
दरमियाँ हमारे फ़ासले।
न दिल की सुनी तुमने कभी
न जुबाँ से कहा हमने कभी।
बस अपने अहम की आग
में जलते रहे तुम ।
न हमने कभी कोशिश की
बुझाने की ।
अब फासले इस कदर
बढ़ चुके हैं दरमियाँ हमारे ।
सोंचती हूँ क्यों न
हम अपनी राह ही बदल लें।।
रुआंस भरी पंक्तियाँ
ReplyDeleteएक दुसरे पर विश्वास दिखाना होता है ....राह बदल लेने से मुश्किलें आसां न होगी.
पासबां-ए-जिन्दगी: हिन्दी
भावप्रणव सुन्दर रचना।
ReplyDeleteएहसास को बहुत खूबसूरती से चित्रित किया है
ReplyDeleteसुंदर अभिव्यक्ति! आदरणिया प्रतिभा जी!
ReplyDeleteधरती की गोद
वाह ! बहुत खूब ! बहुत सुन्दर !
ReplyDeleteबहुत ही बढ़िया
ReplyDeleteसादर
”अहम’ एक दो-धारी तलवार है--कभी हमें बचाती भी है तो कभी-कभी हमें घायल भी करती है.
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति...........दीवाली की हार्दिक शुभकामनायें! मेरी नयी रचना के लिए मेरे ब्लॉग "http://prabhatshare.blogspot.in/2014/10/blog-post_22.html" पर सादर आमंत्रित है!
ReplyDeleteख़ूबसूरत अभिव्यक्ति… दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ...
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