कहाँ गई वो मर्यादा
कहाँ गया वो पुरुषार्थ
जहाँ बंधते थे रिश्तों के धागे
और उनको निभाने की कसमें
वो रेशम की डोरी
वो हंसी वो ठिठोली
जहाँ थी एक मर्यादा
जहाँ था एक विश्वास
न कुचलता था कोई किसी की मर्यादा
न ही करता था खुद को शर्मशार
पर आज शायद इंशानियत खो सी गई है कहीं
क्यूंकि आज फिर किसी ने किया है इंसानियत को शर्मशार !!
कहाँ गया वो पुरुषार्थ
जहाँ बंधते थे रिश्तों के धागे
और उनको निभाने की कसमें
वो रेशम की डोरी
वो हंसी वो ठिठोली
जहाँ थी एक मर्यादा
जहाँ था एक विश्वास
न कुचलता था कोई किसी की मर्यादा
न ही करता था खुद को शर्मशार
पर आज शायद इंशानियत खो सी गई है कहीं
क्यूंकि आज फिर किसी ने किया है इंसानियत को शर्मशार !!