तुम्हारी हसरत थी
हमें पाने की
और हमारी चाहत थी
तुम्हे अपना बनाने की
पर शायद मेरा दिल
तुम्हे समझ नहीं पाया
तुम्हारी आहटों को
पहचान नहीं पाया
पर सोंचती हूँ
कैसे पहचानती तुम्हे मैं
जब तुम खुद की
धड़कनो को
समझ नहीं पाये!!!
हमें पाने की
और हमारी चाहत थी
तुम्हे अपना बनाने की
पर शायद मेरा दिल
तुम्हे समझ नहीं पाया
तुम्हारी आहटों को
पहचान नहीं पाया
पर सोंचती हूँ
कैसे पहचानती तुम्हे मैं
जब तुम खुद की
धड़कनो को
समझ नहीं पाये!!!
पर शायद मेरा दिल
ReplyDeleteतुम्हे समझ नहीं पाया
तुम्हारी आहटों को
पहचान नहीं पाया
सुन्दर पंक्तियाँ प्रतिभा जी
बहुत सुंदर.
ReplyDeleteआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 07-01-2015 को चर्चा मंच पर चर्चा - 1882 में दिया जाएगा
ReplyDeleteधन्यवाद
Thank u so much Dilbag ji!!!
Deleteबहुत ही बढ़िया...
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर
ReplyDeleteसुंदर भावाभिव्यक्ति...
ReplyDeleteबात तो ठीक है....कई बार पहचान नहीं हो पाती आहटों की..
ReplyDeleteहर कदम की आहाट पहचानना मुश्किल होता है ... पर अपने की आहट न जानना ....
ReplyDeleteशायद प्रेम को न जानना है ...
बहूत खूब …
ReplyDeleteसब समझ का ही तो खेल हैं।
बहुत शानदार और जानदार रचना प्रस्तुत करने के लिए धन्यवाद।
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