Thursday, February 05, 2015

तुम्हारी हसरत थी ...

तुम्हारी हसरत थी
हमें पाने की
और हमारी चाहत  थी
तुम्हे अपना बनाने की
पर शायद मेरा दिल
तुम्हे समझ नहीं पाया
तुम्हारी आहटों को
पहचान नहीं पाया
पर  सोंचती हूँ
कैसे पहचानती तुम्हे मैं
जब तुम खुद की
धड़कनो को
समझ नहीं पाये!!!



11 comments:

  1. पर शायद मेरा दिल
    तुम्हे समझ नहीं पाया
    तुम्हारी आहटों को
    पहचान नहीं पाया
    ​सुन्दर पंक्तियाँ प्रतिभा जी

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  2. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 07-01-2015 को चर्चा मंच पर चर्चा - 1882 में दिया जाएगा
    धन्यवाद

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  3. Anonymous2:40 PM

    बहुत ही बढ़िया...

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  4. बहुत ही सुन्दर

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  5. सुंदर भावाभिव्यक्ति...

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  6. बात तो ठीक है....कई बार पहचान नहीं हो पाती आहटों की..

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  7. हर कदम की आहाट पहचानना मुश्किल होता है ... पर अपने की आहट न जानना ....
    शायद प्रेम को न जानना है ...

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  8. बहूत खूब …
    सब समझ का ही तो खेल हैं।

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  9. बहुत शानदार और जानदार रचना प्रस्‍तुत करने के लिए धन्‍यवाद।

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