बचपन में उड़ते परिंदे को देखकर
एक सपना बुना था मैंने
हाँ उड़ना चाहती थी
उस परिंदे की तरह
छूना चाहती थी नीले
आसमान को.…
और हौंसले की कमी भी न थी
पर शायद वक़्त ने
पर ही क़तर दिए !!!
एक सपना बुना था मैंने
हाँ उड़ना चाहती थी
उस परिंदे की तरह
छूना चाहती थी नीले
आसमान को.…
और हौंसले की कमी भी न थी
पर शायद वक़्त ने
पर ही क़तर दिए !!!
ReplyDeleteजय मां हाटेशवरी...
आप ने लिखा...
कुठ लोगों ने ही पढ़ा...
हमारा प्रयास है कि इसे सभी पढ़े...
इस लिये आप की ये खूबसूरत रचना....
दिनांक 21/10/2015 को रचना के महत्वपूर्ण अंश के साथ....
पांच लिंकों का आनंद पर लिंक की जा रही है...
इस हलचल में आप भी सादर आमंत्रित हैं...
टिप्पणियों के माध्यम से आप के सुझावों का स्वागत है....
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
कुलदीप ठाकुर...
वाह
ReplyDeleteबेहतरीन प्रस्तुति
ReplyDeleteबढ़िया जी |
ReplyDelete