Thursday, May 08, 2014

चलो फिर अज़नबी बन जाये हम …

चलो फिर अज़नबी बन जाए  हम
छोड़ ये गलियां घर लौट जाए हम!!

परेशानिओं  से परे हटकर  
बेफ़िक्री की ज़िन्दगी बिताएं हम!
चलो फिर अज़नबी बन जाए  हम
छोड़ ये गलियां घर लौट जाए हम!!

जहाँ न हो तेरा साया जहाँ न हो तेरी यादें 
न ही हों वो बातें न ही हों वो मुलाकातें!
चलो फिर अज़नबी बन जाए  हम
छोड़ ये गलियां घर लौट जाए हम!!

क्या रखा है इन पलों में जो सजोये बैठें हैं 
क्यों न एक नया आशियाँ बनायें हम!
चलो फिर अज़नबी बन जाए  हम 
छोड़ ये गलियां घर लौट जाए हम!!

जहाँ हों  नई  बातें नई  यादें 
न कोई गिला न कोई शिकवा हो!
चलो फिर अज़नबी बन जाए  हम
छोड़ ये गलियां घर लौट जाए हम!!

मुबारक हो तुम्हे ये जहाँ 
हम भी ख़ुशी ढून ही लेंगे!
चलो फिर अज़नबी बन जाए  हम
छोड़ ये गलियां घर लौट जाए हम!!

6 comments:

  1. आपकी इस उत्कृष्ट अभिव्यक्ति की चर्चा कल रविवार (11-05-2014) को ''ये प्यार सा रिश्ता'' (चर्चा मंच 1609) पर भी होगी
    --
    आप ज़रूर इस ब्लॉग पे नज़र डालें
    सादर

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  2. इतना आसान कब होता है अजनबी बन जाना। बहुकत सुंदर रचना।

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  3. जानते हुए भी अजनबी बनना और बने रहना भी कहाँ इतना सुगम है ?बेहतरीन प्रस्तुति

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  4. maja a gya pad kar. Thank You.

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  5. आपकी सुन्दर कविता पढ़ कर मुझे वो प्यारा गीत भी याद आ गया "चलो फिर अजनबी बन जाएँ हम"

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