कभी तुझसे कोई शिकायत नहीं की
बिना मिले ही तुझसे सारी बातें की
नहीं जानती कि कभी कुछ कहना भी चाहा था
पर तुझसे मिलने की कभी हिमाकत नहीं की
माना कि क़िस्मत का खेल बहुत ही अनोखा है
हाँ मुझे तेरी किस्मत से मिलना तो है
शायद उसी के भरोसे मैं कुछ कह पाऊं
और तू कुछ समझ पाए...
वक़्त बेवक़्त का यूँ ख्यालों में आना तेरा
मुझे कभी - कभी गुमराह कर जाता है
रही बात मुकद्दर की तो मैं नहीं जानती
लकीरों का क्या है वो तो हर हाँथ में होती हैं
इनके भरोसे हम किस्मत नहीं छोड़ सकते
और फिर इनसे मुक़द्दर नहीं बदलते !!
सुन्दर रचना
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (14-05-2017) को
ReplyDelete"लजाती भोर" (चर्चा अंक-2631)
पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
बहुत सुंदर । यथार्थ ।
ReplyDeleteWritten from the heart. Beautiful
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