ये खामोश रातें
और तुम्हारी यादें
कितनी समानता है इनमें
न तुम कुछ बोल रहे हो
न ये रातें
बस शान्त …
समंदर की गहराई की तरह
शिकायत करूँ भी तो किससे
इन तन्हा रातों से
या तुम्हारी खामोशी से
हाँ पता है मुझे कि
तुम सुनके भी अनसुना करोगे
और शायद इन स्याह रातों के पास
जवाब नहीं है कोई।।
वाह वाह
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शुक्रवार (19-12-2014) को "नई तामीर है मेरी ग़ज़ल" (चर्चा-1832) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
Thank u so much Sir...:)
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ReplyDeleteबहुत सुन्दर .
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ReplyDeleteअपनी शिकायत---अपनोम से
अच्छी लगी.
Behad umdaa...
ReplyDeleteवाह !!
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